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Press Note "अंत समय में जीने की कला का नाम सल्लेखना है "--डॅा० अनेकान्त कुमार जैन *

Press Note "अंत समय में जीने की कला का नाम सल्लेखना है " -डॅा० अनेकान्त कुमार जैन * सल्लेखना जैन योग की एक विशिष्ट अवस्था का नाम है |इसे भाव परिष्कार की प्राकृतिक चिकित्सा भी कह सकते हैं |सल्लेखना का अर्थ भी क्रोध,मान,माया,लोभ को अच्छी तरह समाप्त करना है।संथारा का अर्थ पुआल आदि का बिछौना है। समत्व पूर्वक आत्मा में स्थित होना समाधि है। मरना अर्थ कहीं नहीं है,मरने से पहले जीने की कला का नाम संथारा है। सल्लेखना मृत्यु के लिए बिलकुल नहीं है ,वह जब तक जियें तब तक संयम पूर्वक जियें- इसलिए है |जैन धर्म दर्शन के अनुसार आत्महत्या जघन्य अपराध है | उसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता | *सह-आचार्य -जैनदर्शन विभाग ,श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ ,(मानित विश्वविद्यालय ,मानव संसाधन विकास मंत्रालय,भारत सरकार),क़ुतुब संस्थानिक क्षेत्र ,नई दिल्ली

सल्लेखना ,संथारा की साधना और संविधान ,इच्छा मृत्यु

जैन सल्लेखना(संथारा) कुछ प्रश्न क्या ईश्वर को अदालत में सिद्ध किया जा सकता है ? क्या आत्मा को कानून द्वारा असिद्ध घोषित किया जा सकता है ? क्या आत्मा की अनुभूति को सबूतों ,शब्दों ,और गवाहों के अभाव में गैर संवैधानिक करार दिया जा सकता है ? क्या देश की रक्षा के लिए सीमा पर लड़ते हुए मरने वाले को आत्महत्या कहा जाता है ? यदि इन सभी का उत्तर नहीं है तो सल्लेखना की साधना को भी अपराध नहीं कहा जा सकता | सभी आदरणीय न्यायाधीशों , वकीलों ,पत्रकारों एवं नागरिकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि सल्लेखना /संथारा /समाधि का स्वरुप समझने की कोशिश करें |मेरा यह लेख एक छोटा सा प्रयास है इसे गंभीरता से अवश्य पढ़ें और विचार करें क्या सभी चीजों को एक ही तराजू पर तोला जा सकता है ? इस लेख में यह भी स्पष्ट किया गया है कि सल्लेखना इच्छा मृत्यु नहीं है ।

क्या आगम ही मात्र प्रमाण है ?

क्या आगम ही मात्र प्रमाण है ? १.आगम प्रमाण है ,किन्तु मात्र वह ही प्रमाण नहीं है |जैन दर्शन में आगम अर्थात आप्त वचन को भी परोक्ष प्रमाण में पांचवां प्रमाण कहा है |उसके पूर्व स्मृति,प्रत्यभिज्ञान,तर्क,अनुमान भी परोक्ष प्रमाण के रूप में ही हैं |सबसे पहले प्रत्यक्ष प्रमाण और उसमें भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ये दो भेद भी किये हैं |ये सभी प्रमाण है | २.आगम प्रमाण तो है ,लेकिन अनुमान और तर्क को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है |जब आगम है तो युक्ति और तर्क आदि की क्या आवश्यकता थी ?आचार्य जानते थे कि आज आगम भले ही भगवान् की वाणी हैं लेकिन कालांतर में छद्मस्थ मनुष्य ही इसे लिखेगा,बोलेगा ,और छपवाएगा | ३.और तब वह लिखने और बोलने में सबसे पहले मंगलाचरण में तो यही कहेगा कि जो भगवान् की वाणी में आया वह मैं कह रहा हूँ और अपने देश ,काल, वातावरण,संप्रदाय,और आग्रहों को भी भगवान् के नाम से अज्ञानता वश उसमें जड़ देगा |कभी कभी परिस्थिति वश धर्म रक्षा के लोभ में भी वह कई तरह के मिथ्यात्व कुछ अच्छे नामों से उसमें डाल देगा |तब बाद में आगम की कौन रक्षा करेगा ?कैसे पता चलेगा कि भगवान् क

प्रकृति एकांत वादी नहीं है

  प्रकृति एकांत वादी नहीं है कुछ , कभी भी , सब कुछ नहीं हो सकता | प्रकृति संतुलन बैठाती रहती है | वह हमारी तरह भावुक और एकान्तवादी नहीं है | हम भावुकता में बहुत जल्दी जीवन के किसी एक पक्ष को सम्पूर्ण जीवन भले ही घोषित करते फिरें पर ऐसा होता नहीं हैं | जैसे हम बहुत भावुकता में आदर्शवादी बन कर यह कह देते है कि १.प्रेम ही जीवन है | २.अहिंसा ही जीवन है | ३. जल ही जीवन है | ४.अध्यात्म ही जीवन है | आदि आदि यथार्थ यह है कि ये चाहे कितने भी महत्वपूर्ण क्यूँ न हों किन्तु सब कुछ नहीं हैं | ये जीवन का एक अनिवार्य पक्ष , सुन्दर पक्ष हो सकता है लेकिन चाहे कुछ भी हो सम्पूर्ण जीवन नहीं हो सकता | इसीलिए कायनात इन्साफ करती है क्यूँ कि हमारी तरह वह सत्य की बहुआयामिता का अपलाप नहीं कर सकती | इसीलिए विश्व के इतिहास में दुनिया के किसी  भी धर्म को कायनात उसकी  कुछ एक विशेषताओं के कारण एक बार उसे छा जाने का मौका देती है किन्तु चाहे वे सम्पूर्ण सत्य दृष्टि का कितना भी दावा करें वे अन्ततोगत्वा ज्यादा से ज्यादा बहुभाग का एक हिस्सा बन कर रह जाते हैं , उन की कुछ विशेषताओं के कारण एक कोना

"चातुर्मास में करें प्राकृत भाषा का विकास"

सादर प्रकाशनार्थ "चातुर्मास में करें प्राकृत भाषा का विकास" विश्व के प्रायःसभी धर्म ग्रन्थ किसी न किसी भाषा में लिखे गए हैं | भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि में जो ज्ञान प्रकट हुआ वह मूल रूप से प्राकृत भाषा में संकलित हैं जिन्हें प्राकृत जैन आगम कहते हैं |इन दिनों जैन समाज में प्रायः सभी जगह साधु/साध्वियां चातुर्मास स्थापित कर रहे हैं |चातुर्मास में प्रत्येक जगह विशेष धर्म आराधना की जाती है तथा लोगों में विशेष उत्साह रहता है |वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि हमारे मूल आगमों की  भाषा प्राकृत को लोग जानते भी नहीं हैं तथा इसका परिचय भी नहीं है |इसीलिए हम अपने शास्त्र पढ़ नहीं पाते हैं |यह हमारा दुर्भाग्य है |इस वर्ष चातुर्मास में सभी साधू श्रावक विद्वान् आदि निम्नलिखित प्रयास करके समाज में प्राकृत भाषा को पुनः जीवंत कर सकते हैं - १. अपनी सभाओं में प्रत्येक कार्यक्रम के पहले एक मंगलाचरण प्राकृत गाथाओं का अवश्य करें अथवा करवाएं |तथा उससे पूर्व सभा में यह घोषणा करें कि अब प्राकृत भाषा में मंगलाचरण होगा |हो सके तो उसका अर्थ भी बताएं | २. चातुर्मास में एक हफ्ते का प्राकृत शिक्

चातुर्मास से होती है आध्यात्मिक क्रांति

"Pravacansaar " - an ancient jain canonical prakrit text of philosophy .by Dr Anekant kumar Jain

"Pravacansaar " - an ancient jain canonical prakrit text of philosophy .by Dr Anekant kumar Jain (Published in Jain Journal,kolkata) Pravchansaar is composed by Acharya Kundkund at 1st C.AD in Shaurseni Prakrit Language.This is an imp.literature of जैन ज्ञान योग  .This is in syllabus of P.G.classes in various Universities.